कल ( यानी दिनांक 18 August को) जब लखनऊ के गोमती नगर स्थित बौद्ध प्रेक्षागार में जाने माने कार्टूनिस्ट,पेंटर,कथाकार,उपन्यासकार मुंबई निवासी आबिद सुरती साहब को सुन रहा था तो मुझे लग रहा था कि शायद आबिद साहब से ज़्यादा सार्थक जीवन कम ही लोग जी पाते होंगे। आबिद सुरती साहब से मेरी यह दूसरी मुलाक़ात थी। कुछ वर्ष पहले आप आकाशवाणी लखनऊ आए थे तो थोड़ी हेलो हेलो हुई थी लेकिन कल आपको सुनने का मौक़ा मिला और आपसे एक छोटी सी बातचीत करने का मौक़ा भी मिला। आबिद सुरती साहब का जीवन किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं है।एक बेहद धनी परिवार में आपका जन्म हुआ था। परिवार वालों के समुद्री जहाज़ चला करते थे। लेकिन जैसा कि शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक “मर्चेंट ऑफ वेनिस” में हुआ था कि उसमें भी एक चरित्र के जहाज़ डूब जाते हैं और वह ग़रीब हो जाता है। कुछ कुछ ऐसा ही सुरती साहब के परिवार में हुआ। इनके परिवार के सात समुद्री जहाज़ डूब गये और एक खाता पीता परिवार सड़क पर आ गया। मां ने दूसरों के यहां बर्तन मांज कर घर का ख़र्च चलाया। आबिद साहब का बचपन मुंबई के एक चॉल में गुज़रा। बचपन में वह लोकल ट्रेनों के पीछे भागते और ट्रेन से यात्री जो सामान नीचे फेंकते उसको हासिल करते। एक दिन आबिद सुरती साहब की ज़िंदगी में नाटकीय मोड़ तब आया जब किसी यात्री ने चलती ट्रेन से एक कॉमिक्स फेंक दिया। सुरती साहब के हाथों में उस कॉमिक्स का एक पन्ना ही आया। उस कॉमिक्स के पन्ने को देखकर आबिद साहब ने अपने साथियों से कहा कि ऐसे चित्र तो मैं भी बना सकता हूँ।और उन्होंने एक चित्र बना कर दिखा भी दिया। जब थोडे़ बड़े हुए, उनके जानने वालों ने उनके भीतर एक चित्रकार की प्रतिभा देखी और उनको मुंबई के JJ स्कूल ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स जॉइन करने की सलाह दी। आबिद साहब ने JJ स्कूल से अपनी पढ़ाई समाप्त की और गुजराती भाषा के एक अख़बार के लिए कार्टून बनाने लगे। लेकिन उनके कार्टूनों पर पाठकों की निगेटिव प्रतिक्रिया आने लगी। तब संपादक ने कहा कि भाई यह कार्टून बनाने का काम बंद कर दीजिए।थोड़े दिन बाद आपको “धर्मयुग” में कार्टून बनाने का मौक़ा मिल गया। फिर आप ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज 88 साल की उम्र तक पहुंचते- पहुंचते आबिद साहब ने लगभग अस्सी किताबें लिखी हैं जिसमें पचास तो उपन्यास हैं, कई कहानी संग्रह हैं। इसके अलावा यात्रा वृत्तान्त और भी न जाने क्या क्या।
लेकिन इतना सब कुछ हासिल कर लेने के बावज़ूद आबिद साहब की चिंता कुछ दूसरी रही। वह जब मुंबई के चॉल में रहते थे तो वहाँ पानी की बहुत दिक़्क़त थी। कल अपनी तक़रीर में आबिद सुरती साहब ने बताया कि चॉल में केवल आधे घंटे के लिए पानी आता था और उनकी माँ सुबह 4 बजे पानी की लाइन में खड़ी हो जाती थीं। बहुत कम पानी की वजह से चॉल में लोगों में आपस में झगड़े भी होते थे।आबिद साहब को यह बात बचपन से बेहद पीड़ा देती रही।जब आप कामयाबी के उन्नत शिखर पर पहुँच गये तो भी यह पीड़ा उन्हें कहीं न कहीं सालती रही तो उन्होंने अपने जीवन में यह प्रण लिया कि वह लोगों को पानी बचाने के बारे में जागरूक करेंगे और इस निश्चय के तहत आज से 15 बरस पूर्व उन्होंने एक फाउंडेशन Drop Dead की स्थापना की। कहीं भी यदि नल से बेवजह टपकते हुए पानी को देखा तो उसको रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया। पिछले कई वर्षों से आप प्रत्येक रविवार को सुबह तीन घंटे मुंबई के मीरा रोड इलाक़े में विभिन्न घरों में जाते हैं और वहाँ अपने साथ एक प्लंबर को भी ले जाते हैं। वहाँ वह मकान मालिक से पूछते हैं कि आपके घर में किसी नल से पानी तो नहीं टपक रहा है। यदि पानी टपक रहा होता है तो वह उस को बिना कोई पैसा लिए हुए ठीक करवाते हैं। आपने बताया कि उन्होंने पिछले 15 वर्षों में तक़रीबन 40 लाख लीटर पानी की बचत में सहयोग दिया है। अपने इस अभियान से जुड़े कुछ रोचक घटनाक्रमों को उजागर करते हुए उन्होने बताया कि समय समय पर उनको बहुत से लोगों ने आर्थिक सहायता देने का प्रस्ताव दिया। इस में से कुछ प्रस्ताव बहुत अटपटे थे। एक बार एक व्यापारी ने उन्हें पाँच करोड़ रुपया देने की पेशकश की लेकिन साथ ही यह शर्त भी लगायी कि आबिद सुरती साहब को उस पाँच करोड़ में से चार करोड़ वापस लौटाना होगा। दरअसल वह व्यापारी नुमा शख़्स अपने काले धन को सफ़ेद करना चाह रहा था। स्वाभाविक है आबिद साहब ने यह शर्त क़बूल नहीं की। इसी तरह वह मुम्बई में नव नियुक्त एक आयकर कमिशनर के बारे में बताने लगे।आयकर कमिशनर महोदय ने आबिद सुरती साहब का साहित्य पढ़ रखा था। साथ ही उनको यह भी मालूम था कि आबिद सुरती जी समाज सेवा का कार्य भी करते हैं। कमिश्नर साहब ने आबिद जी से अपॉइंटमेंट लेकर मुलाक़ात की और पूछा आपको कितना पैसा चाहिए, अपनी संस्था चलाने के लिए। सुरती साहब ने कहा कि मुझे एक भी पैसा नहीं चाहिए क्योंकि जो पैसा मुझे आपसे मिलेगा, वह भय पर आधारित होगा। कोई बड़ा उद्योगपति आपको मेरे लिए धनराशि इसलिए मुहैया कराएगा कि वह सोचेगा कि अगर उसने धनराशि मुहैया नहीं कराई आप उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करवा देंगे। ऐसे ही ढेर सारे रोचक संस्मरणों को कल शाम सुरती साहब ने श्रोता-दर्शकों के साथ साझा किया। एक और रोचक संस्मरण में उन्होंने यह बताया कि एक बार किसी TV शो में अमिताभ बच्चन उनके कार्यों की बातों से इतने प्रभावित हुए कि उनको अपनी तरफ़ से उन की संस्था के लिए 11 लाख रुपये का चेक दिया। अब आबिद सुरती साहब को यह नहीं समझ आया कि वह इतने पैसे का करेंगे क्या? (क्योंकि उनको अपने फ़ाउंडेशन के लिए इतने पैसे की ज़रूरत नहीं थी) तो उन्होंने एक प्रतियोगिता की घोषणा की जिसमें प्रतिभागियों को छोटी छोटी फ़िल्में बनाकर भेजना था और उसके बदले में प्रतिभागियों को अच्छी ख़ासी पुरस्कार की राशि दी गयी।इस तरह दो तीन वर्षों में वह धनराशि समाप्त हो पायी।
आबिद सुरती साहब द्वारा जिस तरह से बिना किसी लाग लपेट के बातें रखी गईं वह अपने आप में अद्भुत था। उनका कहना था कि यदि आप कोई भी अच्छा काम पूरी पारदर्शिता के साथ करते हैं तो आप को विभिन्न स्रोतों से सहयोग मिलना निश्चित है। 88 साल की उम्र में “ बहत्तर साल का बच्चा” किताब का लेखक आज भी मुंबई के एक उपनगर इलाक़े में प्रत्येक रविवार को घर घर जाकर लोगों से पानी बचाने का निवेदन करता है।
मेरा संपर्क ताज़िंदगी हिंदी के बहुत सारे लेखकों से रहा है। लेकिन मैंने इक्का दुक्का लेखक को छोड़कर किसी लेखक को ज़मीनी स्तर पर समाज सेवा (other than लेखकीय प्रवृत्ति) करते नहीं देखा। हिन्दी पट्टी के अधिकतर लेखक अपनी आख़िरी साँस तक कविता, कहानी,उपन्यास, रेखाचित्र, यात्रा वृत्तान्त में ही डूबे रहते हैं।लेखन के अतिरिक्त समाज सेवा का कोई अन्य कार्य अपवाद ही होता है।हाँ बहुत सारे लेखक विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से ज़रूर जुड़े रहे हैं।आबिद सुरती साहब के जीवन से एक प्रश्न तो स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि क्या लेखकों को अपने आस पास घट रही सामाजिक विसंगतियों को ज़मीनी स्तर पर हल करने की पहल नहीं करनी चाहिए या केवल लेखन कर्म से ही सारी सामाजिक जिम्मेदारियां पूरी हो जाती हैं? साहित्य की टट्टी की आड़ लेकर जीवन भर एक वायवीय दुनिया में विचरण करना ही क्या हिंदी पट्टी के लेखकों की नियति हो गई हैं?
प्रतुल जोशी